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कविता

जंगल में एक बछड़े का पहला दिन

हरीशचंद्र पांडे


आज जंगल देखने का पहला दिन है
गले में घंटी घनघना रही है

आज चरना कम... देखना ज्यादा है
जहाँ हरापन गझिन है लपक नहीं जाना है वहीं
वहाँ मुड़ने की जगह भी है... देखना है

आज झाड़ियों से उलझ-उलझ पैने हुए हैं उपराते सींग
आज एक छिदा पत्ता चला आया है घर तक
आज खुरों ने कंकड़-पत्थरों से मिल कर पहला कोरस गाया है

आज देखी है दुनिया
आज उछल-उछल डौंरिया कर पैर हवा में तैरे हैं
और पूँछ का गुच्छ आकाश तक उठा है

आज रात... नदी की कल-कल नहीं सुनाई देगी

 


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